रामशरण जोशी की यह पुस्तक जिन्दा यादों की एक विरल गाथा है। उन जिन्दा यादों की जिनमें हरे-भरे कैनवस पर खून के छींटे दूर-दूर तक सवालों की तरह दिखाई देते हैं। ऐसे सवालों की तरह एक देश के पूरे नक़्शे पर, जिन्हें राजसत्ता ने अपने आन्तरिक साम्राज्यवाद प्रेरित विकास और विस्तार के लिए कभी सुलझाने का न्यायोचित प्रयास नहीं किया, बल्कि 'ग्रीन हंट' और 'सलवा जुडूम' के नाम पर राह में आड़े आनेवाले 'लोग और लोक' दोनों को ही अपराधी बना दिया। और यातनाओं को ऐसे द्स्वप्न में बदला कि दुनिया-भर के इतिहासों के साक्ष्य के बावजूद छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि के वनांचलों का भविष्य अपने आगमन से पहले लहकता रहा, 'लाल गलियारा' बनता रहा। यह पुस्तक राजसत्ता और वश्विक नव उपनिवेशवादी चरित्र से न सिर्फ नकाब हटाती है बल्कि आदिवासियों यानि हाशिए के संघर्ष का वैज्ञानिक विश्लेषण भी करती है। रेखानिक करती है कि 'हाशिए के जन का अपराध केवल यही रहा है कि प्रकृति ने उन्हें सोना, चांदी, लोहा, मेंगनीज, तम्बा, एलुमिनियम, कोयला, तेल, हीरे-जवाहरात, अनंत जल-जंगल-जमीन का स्वाभाविक स्वामी बना दिया; समता, स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता और न्याय पूर्ण जीवन की संरचना से समृद्ध किया । इसलिए इस जन ने अन्य की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं किया। यदि अन्यों ने किया तो इस जन ने उसका प्रतिरोध भी जरूर किया। इस आत्म-रक्षात्मक प्रतिरोद्क का मूल्य इस जन को पलायन, पतंत्रता, शोषण और उत्पीडन और उत्पीडन के रूप में अदा करना पड़ा। अपने काल-परिप्रेक्ष्य में 'यादों का लाल गलियारा : दंतेवाडा' पुस्तक bastar, जसपुर, पलामू, चंद्रपुर, गढ़चिरोली, कालाहांडी, उदयपुर, बैलाडीला, अबूझमाड़, दंतेवाडा सहित कई वनांचलों के जमीनी अध्ययन और अनुभवों के विस्फोटक अंतरविरोधो की इबारत लिखती है। लेखक ने इन क्षेत्रो में अपने पड़ावों की जिन्दा यादों की जमीन पर अवलोकन-पुनरवलोकन से जिस विवेक और दृष्टि का परिचय दिया है, उससे नई राह को एक नई दिशा की प्रतीति होती है। यह पुस्तक हाशिए का विमर्श ही नहीं, हाशिए का विकल्प-पाठ भी प्रस्तुत करती है।